सोमवार, सितंबर 30

   हँसी   ख़ामोश  हो  जाती, ख़ुशी ख़तरे में पड़ती है ।
  यहाँ    हर  रोज़  कोई दामिनी ख़तरे में पड़ती है ।
जुआ खेला था तो  ख़ुद  झेलते दुशवारियाँ उसकी ,
भला  उसके लिए क्यों  द्रौपदी ख़तरे में पड़ती है ।
हमारे   तीर्थों  के   रास्ते हैं इस  क़दर   मुश्किल,
पहुँच  जाओ  अगर तो वापसी ख़तरे में पड़ती है ।
पहाड़ों - जंगलों से तो  सुरक्षित है  निकल आती,
मगर शहरों के पास आकर नदी ख़तरे में पड़ती है ।
तभी    वो   दूसरे   आधार  पर   ईनाम  देते  हैं,
अगर  प्रतिभा को देखें, रेवड़ी  ख़तरे में पड़ती है ।
ज़रा बच्चों के मिड-डे-मील को तो बख़्श दो भाई
ये  हैं  मासूम, इनकी  ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ती है ।
परोसा है ग़ज़ल के नाम पर फिर फेसबुक ने कुछ
नहीं  लाइक  करूँ  तो दोस्ती ख़तरे में पड़ती है ।







मंगलवार, जनवरी 24

बेशक कुछ नुकसान बढ़ा

बेशक कुछ नुकसान बढा
पर जीवन का ज्ञान बढ़ा.

दुनिया तुझको जान गई
अब खुद से पहचान बढ़ा.

जब भी शहर से लौटे हम
घर में कुछ सामान बढ़ा.

छोड़ के निकला अपना घर
तब आगे इंसान बढ़ा.

सिंधु असीमित था फिर भी
साहस कर जलयान बढ़ा.

या दुख ही कुछ कम कर ले
या हिम्मत भगवान बढ़ा.

तुमको सम्मानित करके
मेरा भी सम्मान बढ़ा.

ऊँट किस करवट मियाँ ....

आएगी सरकार किसकी है बड़ा संकट मियाँ
देखिए अब बैठता है ऊँट किस करवट मियाँ

तुम चले जाओ किसी संसद में,ये मत भूलना
चूमनी है लौटकर कल फिर यही चौखट मियाँ

कुछ ज़रूरत ज़िंदगी की,कुछ उसूलों के सवाल
चल रही है इन दिनों खुद से मेरी खट पट मियाँ

मुश्किलें आएं तो हंसकर झेलना भी सीखिए
ज़िंदगी वर्ना लगेगी आपको झंझट मियाँ

बदहवासी का ये आलम क्यूं है बतलाओ ज़रा
लोग भागे जा रहे हैं किसलिए सरपट मियाँ

जिनसे हम उम्मीद करते हैं, संवारेंगे इसे
कर रहे हैं मुल्क को वो लोग ही चौपट मियाँ.

गाँव आकर ढूँढता हूँ गाँव वाले चित्र वो
छाँव बरगद की किधर है?है कहाँ पनघट मियाँ

पीढ़ियों को कौन समझायेगा कल पूछेंगी जब
लाज क्या होती है क्या होता है ये घूंघट मियाँ

मंगलवार, अक्तूबर 4

नज़र में आजतक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला

नज़र में आज तक मेरी कोई तुझसा नहीं निकला
तेरे चेहरे के अन्दर दूसरा चेहरा नहीं निकला

कहीं मैं डूबने से बच न जाऊँ, सोचकर ऐसा
मेरे नज़दीक से होकर कोई तिनका नहीं निकला

ज़रा सी बात थी और कशमकश ऐसी कि मत पूछो
भिखारी मुड़ गया पर जेब से सिक्का नहीं निकला

सड़क पर चोट खाकर आदमी ही था गिरा लेकिन
गुज़रती भीड़ का उससे कोई रिश्ता नहीं निकला

जहाँ पर ज़िन्दगी की , यूँ कहें खैरात बँटती थी
उसी मन्दिर से कल देखा कोई ज़िन्दा नहीं निकला

रविवार, मार्च 27

देखिए आते हैं अब कबतक निकल के देवता.

आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूपसी के जाल में उलझे फिसल के देवता

बाढ़ की लाते तबाही तो कभी सूखा विकट
किसलिए नाराज़ रहते हैं ये जल के देवता

भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता

की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता

लोग उनके पाँव छूते हैं सुना है आज भी
वो बने थे ‘सीरियल’ में चार पल के देवता

भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता

कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता

है अगर विश्वास तो फिर डर कहीं लगता नहीं
हर क़दम पर हैं हमारे साथ बल के देवता

है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता

शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता

गुरुवार, मार्च 17

खेत सारे छिन गए....

खेत सारे छिन गए घर - बार छोटा रह गया
गाँव मेरा शहर का बस इक मुहल्ला रह गया

सावधानी है बहुत ,खुलकर कोई मिलता नहीं
आदमी पर आदमी का ये भरोसा रह गया

प्रेम ने तोड़ीं हमेशा जाति – मज़हब की हदें
पर ज़माना आज तक इनमें ही उलझा रह गया

बेशक़ीमत चीज़ तो गहराइयों में थी छिपी
डर गया जो,वो किनारे पर ही बैठा रह गया

जिससे अपनी ख़ुद की रखवाली भी हो सकती नहीं
घर की रखवाली की ख़ातिर वो ही बूढ़ा रह गया

शुक्रवार, जुलाई 9

काम आएगा यही ....

काम आएगा यही , यह जान कर चलते रहे
झूठ को सच जिंदगी का मान कर चलते रहे

रास्ते की मुश्किलों से जूझते – लड़ते हुए
हम कोई संकल्प मन में ठान कर चलते रहे

साफ़ मन था और थी दौलत अना की उनके पास
मुफ़लिसी में भी वो सीना तान कर चलते रहे

वक्त लग जाएगा कितना ये कभी सोचा नहीं
हम तो अपनी मंज़िलें पहचान कर चलते रहे

लोग टीका - टिप्पणी करते रहे क्या क्या मगर
वो कभी बोले नहीं विष पान कर चलते रहे