शनिवार, जून 12

दुःख तो गाँव-मुहल्ले के भी

दुःख तो गांव-मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में खुद जरते आए बाबूजी

कुर्ता,धोती,गमछा,टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी

बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गवने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी

रोज़ वसूली कोई न कोई,खाद कभी तो बीज कभी
हरदम उस बूढ़े अमीन से डरते आए बाबूजी

हाथ न आया एक नतीजा, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट - कचहरी करते आए बाबूजी

नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी