शुक्रवार, जुलाई 9

काम आएगा यही ....

काम आएगा यही , यह जान कर चलते रहे
झूठ को सच जिंदगी का मान कर चलते रहे

रास्ते की मुश्किलों से जूझते – लड़ते हुए
हम कोई संकल्प मन में ठान कर चलते रहे

साफ़ मन था और थी दौलत अना की उनके पास
मुफ़लिसी में भी वो सीना तान कर चलते रहे

वक्त लग जाएगा कितना ये कभी सोचा नहीं
हम तो अपनी मंज़िलें पहचान कर चलते रहे

लोग टीका - टिप्पणी करते रहे क्या क्या मगर
वो कभी बोले नहीं विष पान कर चलते रहे

इक नई कशमकश ..

इक नई कशमकश से गुज़रते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे

हमने जब भी कही बात सच्ची कही
इसलिए हम हमेशा अखरते रहे

कुछ न कुछ सीखने का ही मौक़ा मिला
हम सदा ठोकरों से सँवरते रहे

रूप की कल्पनाओं में दुनिया रही
खुशबुओं की तरह तुम बिखरते रहे

जिंदगी की परेशानियों से “यती”
लोग टूटा किये,हम निखरते रहे

दीपमाला सज गई हर देहरी के सामने

दीपमाला सज गई हर देहरी के सामने
अब अमावस क्या टिकेगी रौशनी के सामने

मानता हूँ है बड़ी काली, बड़ी ज़िद्दी मगर
एक तीली ही बहुत है तीरगी के सामने

सब धुरन्धर सर झुकाए हैं खड़े दरबार में
वक़्त कैसा आ गया है द्रौपदी के सामने

चाहता है और ज़्यादा, और ज़्यादा जोड़ना
लक्ष्य शायद अब यही है आदमी के सामने

था तो भाई ही मगर जब जान पर बन आई तो
कंस कैसे पेश आया द्रौपदी के सामने

शे’र उसके याद हैं पर कौन पहचाने उसे
वो बहुत छोटा है अपनी शायरी के सामने

ध्यान फिर रखता नहीं है क्यों बुजुर्गों का क

छिपे हैं मन में जो भगवान से वो पाप डरते हैं

छिपे हैं मन में जो भगवान से वो पाप डरते हैं
डराता वो नहीं है लोग अपने आप डरते हैं

यहाँ अब आधुनिक संगीत का ये हाल है यारों
बहुत उस्ताद भी लेते हुए आलाप डरते हैं

कहीं बैठा हुआ है भय हमारे मन के अन्दर तो
सुनाई मित्र की भी दे अगर पदचाप डरते हैं

निकल जाती है अक्सर चीख जब डरते हैं सपनों में
हक़ीक़त में तो ये होता है हम चुपचाप डरते हैं

नतीजा देखिये उम्मीद के बढते दबावों का
उधर संतान डरती है इधर माँ-बाप डरते हैं

छीन लेगी नेकियाँ ईमान को ले जाएगी

छीन लेगी नेकियाँ ईमान को ले जाएगी
भूख दौलत की कहाँ इंसान को ले जाएगी

बेचकर गुर्दे असीमित धन कमाने की हवस
किस जगह इस दूसरे भगवन को ले जाएगी

आधुनिकता की हवा अब तेज़ आंधी बन गई
सोचता हूँ किस तरफ़ संतान को ले जाएगी

शहर की आहट हमें सड़कें दिखाएगी नई
फिर हमारे खेत को, खलिहान को ले जाएगी

सिन्धु हो,सुरसा हो,कुछ हो किन्तु इच्छाशक्ति तो
हैं जहाँ सीता वहाँ हनुमान को ले जाएगी

गांव की बोली तुझे शर्मिंदगी देने लगी
ये बनावट ही तेरी पहचान को ले जाएगी

बुरे की हार हो जाती है अच्छा जीत जाता है

बुरे की हार हो जाती है अच्छा जीत जाता है
मगर इस दौर में देखा है पैसा जीत जाता है

बड़ों के क़हकहे ग़ायब, बड़ों की मुस्कराहट गुम
हँसी की बात आती है तो बच्चा जीत जाता है

यहाँ पर टूटते देखे हैं हमने दर्प शाहों के
फ़क़ीरी हो अगर मन में तो कासा जीत जाता है

खड़ी हो फ़ौज चाहे सामने काले अंधेरों की
मगर उससे तो इक दीपक अकेला जीत जाता है

हमेशा जीत निश्चित तो नहीं है तेज़ धावक की
रवानी हो जो जीवन में तो कछुवा जीत जाता है

ये भोजन के लिए दौड़ी वो जीवन के लिए दौड़ा
तभी इस दौड़ में बिल्ली से चूहा जीत जाता है

बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है

बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है

कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है

छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है

भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है

भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम आती है तो तन्हा छूट जाता है